सोशल मीडिया दे रहा महिलाओं को अचेतन के दुःख से उबङने का सुर।

महिलाओं में अचेतन की छटपटाहट के प्रति सोशल मीडिया ने दिये विरोध के सुर।
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डॉ॰ मनोज कुमार
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हमारे संविधान में  महिला-पुरूष की समानता की वकालत की गयी है। लेकिन समाज में हर मामले में महिलाओं को वो अधिकार नही मिलें हैं जिनकी दरकार बदलते दौर में देखा जा रही।
 महिलाओं को अबतक किसी समान की तरह ही समझा गया। समाज में महिलाओं की  एक कमजोर छवि प्रस्तुत की गयी। इसके बावजूद वह  रीती-रीवाजों व संस्कृतियों के दायित्व का वहन करती रही हैं। अब
बच्चों के लालन-पालन की बात करें या पति के नखरे उठाने की दोनों ही जगह अपने जिम्मेदार होने के सबूत भी उन्होंने दिए।आप देंखें तो  शादी के बाद मिली नयी जिम्मेवारीयों का मामला हो या
घर चलाने की बात हो ,नौकरी में मिले जिम्मेदारी का अहसास व नैतिक मूल्यों का निर्वाह बदलते समय में इनके व्यक्तित्व को निखारने का काम भी  कर रहा।
हर वर्ग की  महिलाएं बदल रही अपनी  मानसिकता ।
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दरअसल सैकड़ों सालो से महिलाओं के अचेतन में यह बात डाली गयी की उनकी निर्बलता व असहायता ही उनकी पहचान हो सकती है। बदलते परिवेश में इससे उलट कार्य वह चुन रही जिसकी कल्पना समाज नही कर पाया था। ऐसा मिंथ्स रहा था कि वह  उस काम को कदापि नही कर सकती जिन कामों पर पुरूषों का अधिपत्य अबतक रहा है।उन कामों को अब बङे सहजता से महिलाएं चुन रही और आगे भी बढ रही। महिलाओं के अचेतन में राज कर रहें उन कशमकश को भी अब मात मिल रही जिसमें वह  समाज में  शिक्षा व उनके जन्म से जुड़े अनेकानेक भ्रातियां को ठीक से समझने का मौका मिलता जा रहा।अब  बङे व्यापक रुप में महिलाएं पूरे साज-सज्जा के साथ कराये गये समाजिक-सांस्कूतिक गलत अनुभवों को  अपने दामन से आजाद कर रहीं ।वह इस घूंट भरे कसावटपन के प्रति अपनी चुप्पी व सबकुछ होता हैं जैसे  मौन धारण व बर्दाश्त करने के स्त्रीतत्व के गुण को नियति मानकर उस रास्ते पर चलने के बजाए  अपने व्यवहार को बदल रहीं हैं। अबतक
वह अपने खिलाफ होनेवाले अन्याय को पीती रही।सब्जबाग दिखाकर व उनकी निर्बलता का झांसा देकर पुरूषवादी समाज एक समय से अबतक उनको उपभोग करता रहा।
कुछ मामले में महिलाओं ने आवाज बुलंद करनी भी चाही पर पुरूषवादी चेतना ने सदियो से कमजोर मानी जानी वाली नारी की जागृत चेतना को झकझोर दिया और मामला जहाँ का तहां हरबार रह गया।
वैश्विक महामारी के परिणाम या इससे उत्पन्न महौल ने महिलाओं में उनके अचेतन की छटपाहट को समझने का एक अवसर दिया है। इनके हौसले को एक राह दिख रही है। अनेकों तरह के अवसर उन्हें दिख रही है साथ ही अब इन लम्हों से उपजे विचार ने उन्हें एक मंच पर लाकर बिठा दिया है।जिस प्रकार अनेकों तरह के सोशल प्लेटफॉर्म बढते जा रहे उनसे अनेक विकल्प भी बढें है।
जहाँ वह अपने साथ हो चुके वाक्यां को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर पा रहीं।
इसके पीछे मूल वजह  यह हैं कि हर स्त्री में पुरूषों जैसे  गुण भी होते हैं जिन्हें एनिमा कहा जाता है। स्त्री की यह विशेषता उसे पुरुषों जैसे सारे कामों को करने की छूट देता है। जिन महिलाओं में शिक्षा व ग्लोबलाइजेशन के मार्फत यह स्त्रीत्व गुण पुरजोर होता हैं ।वह समाज का नेतृत्व भी कर रहीं ।
उदेश्य साफ-सुथरा
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सोशल मीडिया पर महिलाएं के बढते दबदबा पर कामकाजी पुरूषों को डरने की जरूरत नही है क्योंकि पुरूषों में भी एनीमस जैसे पौरूषत्व गुण होते हैं ।फर्क सिर्फ इतना हैं की पुरूष इन गुणों का दुरूपयोग सदियों से महिलाओं के चेतना को कमजोर करने के लिए करता रहा है। महिलाओं की चेतना अब सोशल साइट से मिले स्तंभ से मजबूत हुयी है। वह समय-समय पर अभिव्यक्ति की आजादी से इन माध्यमों से समाजिक बुराइयों अपने निजता के हनन के खिलाफ आंदोलित भी हो रही हैं।जिसका असर अब घरों में भी दिख रहा।अब समय आ गया है कि समाज इनके मुद्दों को स्वीकार करे और बहुत सारे मानसिक विकारों को पनपने से रोकें।
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डॉ॰ मनोज कुमार, मनोवैज्ञानिक चिकित्सक, पटना

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